-मैंने यह पुस्तक क्यों व कैसी लिखी-
मैंने अपने जीवन में विज्ञान और वातावरण की पुस्तकें तो बहुत लिखी हैं लेकिन जीवन पर पुस्तक लिखने का प्रयास पहली बार किया है। इसकी शुरुआत और अंत, कहां व कैसे होगा, इसका तो मुझे कोई ज्ञान नहीं था। मेरे मन में कुछ हलचल हुई, उदगारों ने जन्म लिया, मेरी यादों के पृष्ठ खुलते रहे और लेखनी चलती रही। मम्मी के साथ गुजरे, जीवन के चुनिंदा अनुभवों को अब संकलित करने लगी तो महसूस हुआ कि यह तो एक पुस्तक बन सकती है। अब इस पुस्तक को समाप्त करना मेरा मकसद बन गया था क्योंकि जिन अनुभवों को मैंने संकलित किया, यादों से समेटकर कागज पर उतारने का प्रयास किया, वे समाज के लिए कोई प्रेरणा स्रोत भी बन सकते हैं। यह एक ऐसी कहानी है जो एक ओर संदेश देती है तो दूसरी ओर जीवन की कटुता का परिचय भी। इस कहानी की नायिका पदमा है जो जीवन की चुनोतियों का अदम्य साहस के साथ सामना करती हैं।
जिंदगी एक हसरत है सभी के लिए पर इसको जीना एक कला है पर इस कला को कुछ ही लोगों ने जाना है। इस कला को मम्मी ने बखूबी अपनाया था। आंसुओं से भरी जिंदगी को भी खुश होकर काटा।
मैं, मेरे और मेरी सास मां के रिश्ते पर जहां एक ओर मान महसूस करती हूं वहीं दूसरी ओर इस बात की उम्मीद भी रखती हूं कि यदि मैं इन अनुभवों को समाज से सांझा करूं तो शायद कोई उदासीन पड़े हुए रिश्तों में फिर से गर्माहट आ जाए या मरते सास-बहू के रिश्तों में सांसें भर जाएँ। किसी सास को बेटी मिल जाए, किसी बेटी को मां या फिर किसी मां को खोया और बदला बेटा, शायद फिर से मां को ढूंढ ले और दिल में बसा ले। यही मेरी मां की सच्ची श्रद्धांजलि होगी और उनकी आत्मा को संतुष्टि। मैं अपनी देवी समान माँ (सास) को तो खो चुकी हूं पर उनको पाने का यही एक रास्ता था कि समाज को कुछ दे सकूं।
मेरी बहुत सारी यादें हैं इन 16 वर्षों की जिन्हें मैं कागज के पन्नों पर उतारकर कैद कर लेना चाहती थी कि जिंदगी की ढलती शाम में जब मेरा मानस पटल क्षीण हो, बसी यादें धूमिल होने लगे, तब पन्नों को पलट लूं और फिर से ढलती जिंदगी जीवंत हो उठे क्योंकि यह 16 वर्ष ऐसे व्यक्ति के साथ गुजरे थे जिससे प्यार का मतलब जाना था, जिसने प्यार सिखाया था और जिसकी जिंदगी में केवल प्यार ही था बांटने के लिये। इन सभी खूबसूरत पलों को, यादों को सबके साथ बांटना चाहती हूं जिससे सभी लाभांवित हों।
मैं, मम्मी के साथ ऐसा महसूस करती थी, उन्हीं भावनाओं को मैंने बिना किसी अलंकार से सजाए, सीधे पन्नों पर उतारने की कोशिश की है। मैं उन्हें मम्मी कहकर बुलाती थी तो जब भी मेरी लेखनी, मां लिखती तो एक दूरी महसूस होती थी और मम्मी लिखने पर तार सीधे रूह तक जुड़ते रहे। मधुर पलों को दोबारा जीने का प्रयास है, यह पुस्तक। सही मायने में तो जीवन का सफर चलता जाता है, उसमें पीछे पलट कर, गुजरे रास्तों पर वापस जाना असंभव है पर यादों के मानस पटल पर गुजरे हुए रास्तों पर बार-बार जाना भी एक सुखद एहसास होता है। लेखन के सफर में मुझे भी यह अनुभूति हुई है।
आप सभी परिवार के लोग, मित्रगण जो मम्मी से भावनात्मक रुप से जुड़े थे, उनकी यादों को झकझोर कर उनको भी इसमें शामिल करने का प्रयास किया है। यह पुस्तक नहीं बल्कि मधुर यादें हैं, समाज के लिए संदेश है, परिवार को बटोरने का प्रयास है और मेरी पदमा मम्मी को श्रध्दान्जलि।
मैंने यह महसूस किया कि आज परिवारों में बड़े-बुजुर्गों की कद्र नहीं की जाती है। हम हिंदुस्तान की शान की बात करते हैं पर उससे पहले जरूरी है कि परिवार की शान, मर्यादा और धरोहर की रक्षा की जाए। हमारे मां-बाप हमारी सबसे बड़ी धरोहर है, शान है, उनकी हिफाजत करना, उनको परिवार का मुखिया बनने का मान देना। हमारे कर्तव्य के साथ-साथ नेतिक जिम्मेदारी भी है। इस पुस्तक को लिखने का मकसद समाज को एक संदेश देना है कि जिन घरों में बड़ों के समान, गौरव और मर्यादा की बात होती है वे घर टूटा नहीं करते।
यह पुस्तक मेरी मां ही नहीं बल्कि एक ऐसी नारी के जीवन पर आधारित है जो आदर्श नारी होने के सारे पैमाने पर खरी उतरती है। मेरी मां की कभी यह आरजू न थी कि वह इत्र से महकें बल्कि उनकी कोशिश रही कि उनके किरदार से खुशबु आए। मम्मी एक विशिष्ट महिला थीं। उन्होंने बचपन से लेकर, युवा, प्रौढ़ और वृद्धावस्था की यात्रा में, प्रत्येक परीस्थिति में, एक अच्छे चरित्र का परिचय दिया। वह श्र्ध्येय, त्यागमयी, ममतामई, क्षमाशील, प्यार का सागर, वचनब्ध और न जाने कितने विशेषणों का पर्याय थीं, जिनको मैं अलग-अलग घटनाओं और अनुभवों के माध्यम से आप तक पहुंचाने का प्रयास करूंगी। पुस्तक को लिखने में हिंदू और उर्दू भाषा के साथ-साथ अंग्रेजी भाषा का प्रयोग भी हुआ है। भाषा में अलंकार की कमी भी नजर आ सकती है क्योंकि भावनाओं को मैंने भाषा केऊपर स्थान दिया है। भावनाओं को बहने दिया है पर शब्दों से बांधा भी है। मेरा मानना है कि शब्दों में जिम्मेवारी झलकनी चाहिए क्योंकि इन्हें लोग पढ़ते हैं। शब्द की सत्ता व्यापक व विशाल है। बहुत कुछ अपने में समेट लेता है। शब्दों के चयन में त्रुटी स्वाभाविक है क्योंकि भावनाओं को गौर किया है तो शैली अव्यवस्थित हुई होगी और शब्द भी टूटे होंगें। इसके लिए माफी चाहती हूँ।
पुस्तक का नाम ‘पदमाँ’ अर्थात ‘कमल’ बहुत सोच विचार कर रखा गया है। यह मम्मी का नाम भी था पर इस शीर्षक को मम्मी ने अपने जीवन में, अपने आचरण और चरित्र के माध्यम से चरितार्थ भी किया। तालाब में रहकर, कीचड़ के बीच जिस प्रकार कमल खिलता है, अपनी खूबसूरती बिखेरता है उसी प्रकार मम्मी ने अपने जीवन में भी, सभी विषम परिस्थितियों के बीच रहकर चारों ओर खुशियां बिखेरीं। हर परिस्थिति में खिली रहीं। वह एक ऐसा कमल का फूल (पदमाँ) हैं जो अब भगवान को समर्पित हो चुका है, उनके चरणों में विराजमान है।
श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए
डॉ. श्रुति शुक्ला
(रूचि)